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सत्ताईसवाँ सूक्त
शक्ति और ज्योति का सूक्त
[ अर्धदेवता त्रैवृष्ण त्रयरुण त्रसदस्यु और द्रष्टा अश्वमेधके रूपमे ऋषि भागवत मन इन्द्रकी ज्योतिकी मानवीय मनमें परिपूर्णताका और भागवत संकल्प अर्थात् अग्निकी शक्तिकी प्राणमे परिपूर्णताका प्रतीकरूप प्रतिनिधि है । राक्षसोंके हन्ता मनोमय पुरुषने--जो मानवमें उत्पन्न इन्द्रके रूपमें ज्ञान-के प्रति जाग्रत् हो चुका है--द्रष्टाको प्रकाशकी अपनी दो गौएं दी हैं जो उसका शकट खींचती है, अपने दो चमकीले अश्व दिए हैं जो उसका रथ खींचते हैं और ज्ञानकी उषाकी दसगुना बारह गौएं दी हैं । उसने उस कामनाको अपनी सहमति प्रदानकी है और उसे सम्पुष्ट भी किया है जिसके द्वारा प्राणमय पुरुषने प्राणमय अश्वको यज्ञाहुतिके रूपमें देवोंको प्रदान किया है । ऋषि प्रार्थना करता है कि त्रिविध उषाका अधिपति यह मनो-मय पुरुष यात्रा करनेवाले प्राणको जो सत्यकी खोज कर रहा है, अपेक्षित मानसिक प्रज्ञा और प्रभुत्व-शक्ति प्रदान करे और स्वयं उसके बदलेमें अग्नि-से शान्ति और आनन्द प्राप्त करे । दूसरी तरफ प्राणमय पुरुषने सौ शक्तियाँ-अर्थात् ऊर्ध्वमुरवी यात्राके लिए आवश्यक प्राणशक्ति प्रदानकी है; ऋषि प्रार्थना करता हे कि यह प्राणमय पुरुष वह विशाल शक्ति प्राप्त करे जो अतिचेतनाके स्तर पर सत्य-सूर्यकी शक्ति है । ] १ अनस्वन्ता सत्पतिर्मामहे मे गावा चेतिष्ठो असुरो मघोन: । त्रैवृष्णो अग्ने दशभि: सहस्रैर्वैश्वानर त्र्यरुणश्चिकेत ।। १ ।।
(अग्ने) हे दिव्य सकल्पाग्ने ! (वैश्वानर) हे सार्वभौम शक्ते1 ! (चेतिष्ठ:) अन्तर्दर्शनमें सर्वोच्च, (सत्पति:) अपनी सत्ताकें स्वामी (मघोन:) अपने परिपूर्ण ऐश्वर्योंके अधिपति (असुर:) शक्तिशाली एकमेव ने (मे) मुझे (गावा) प्रकाशकी अपनी दो गौएं (मामहे) दी हैं जो (अनस्वन्ता) उसकी गाड़ी खींचती है । (त्रि-अरुण:) तीन प्रकारकी उषावाला, (त्रैवृष्ण:) ___________ 1. अथवा, ''देवता'' । ११८
शक्ति और ज्योतिका सूक्त
त्रिविध वृषभ1का पुत्र वह (दशभि: सहस्रै:) अपने दस हजार2 ऐश्वयाक साथ (चिकेत) ज्ञानके प्रति जाग गया है । २ यो मे शता च विंशतिं च गोनां हरी च युक्ता सुधुरा ददाति । वैश्वानर सुष्टतो वावृधानोदुग्ने यच्छ त्र्यरुणाय शर्म ।।
(य:) जो तू (मे) मुझे (गोनां शता च विंशतिं च) उषाकी एक सौ बीस3 गौएं (ददाति) देता है (च) और (युक्ता) गाड़ीमें जुते हुए, (सुधुरा) जुएको ठीक तरह वहन करनेवाले (हरी) दो चमकीले घोड़े4 (ददाति) देता है, (अग्ने) हे दिव्य संकल्पाग्ने ! (वैश्वानर) हे सार्वभौम शक्ते ! (सुष्टुत:) सम्यक्तया स्तुति किया हुआ और (वावृधान:) वृद्धिको प्राप्त होता हुआ वह तू (त्रि-अरुणाय) त्रिविध उषाके स्वामीके लिए (शर्म) शान्ति और परम आनन्द (यच्छ) प्रदान कर । ___________ 1. त्रिविध बैल है इन्द्र,--स्वर् अर्थात् भागवत मनके तीन ज्योतिर्मय प्रदेशोंका अधिपति । त्र्यरुण त्रसदस्यु अर्धदेव है, इन्द्र-रूपमें परिणत मानव है । इसलिए इसे इन्द्रके सब प्रचलित विशेषणों-''असुर'', ''सत्पति'', ''मधवन्''--के द्वारा वर्णित किया गया है । त्रिविध उषा है उक्त तीन प्रदेशोंकी उषा जो मानवीय मन पर उदित हुआ करती है । 2. सहस्रकी संख्या परम परिपूर्णताका प्रतीक है, परन्तु ज्योतिर्मय मनकी दस सूक्ष्म शक्तियाँ हैं जिनमेंसे प्रत्येकको अपना समग्र पूर्णेश्वर्य प्राप्त करना होता है । 3. यह दिव्य ज्ञानकी ज्योतियोंकी प्रतीकात्मक संख्या हैं, तो ज्योतियाँ वर्षके बारह महीनों और यज्ञकी बारह ऋतुओंकी उषाओं (गौओं )की शृंखला ही है । ये ज्योतियाँ पुन: दस गना बारह हैं जो दस सूक्ष्म बहिनोंसे अर्थात् प्रदीप्त मनोमय सत्ताकी शक्तियोंसे सम्बन्ध रखतीहैं । 4. इन्द्रके दो चमकीले अश्व बुहुत सम्भवत: वही हैं जो प्रथम मन्त्रकी दो प्रकाशरूपी गौएं हैं; व अतिमानसिक सत्य-चेतनाकी दो दृष्टि- शक्तियाँ हैं--दायीं और बायीं, बहुत सम्भवत: साक्षात् सत्य- विवेक और सम्बोधि-ज्ञान । ज्ञानके प्रकाशकी प्रतीकात्मक गौओंके रूपमें दे अपने आपको भौतिक मनके साथ, गाड़ीके साथ जोतते हैं; ज्ञानकी शक्तिके प्रतीकात्मक अश्वोंके रूपमें वे अपने आपको इन्द्र--मुक्त विशुद्ध मनके रथके साथ जोतते हैं । ११९
३ एवा ते अग्ने सुमति चकानो नविष्ठाय नवमं त्रसदस्यु: । यो मे गिरस्तुविजातस्य पूर्वीर्युक्तेनाभि त्र्यरुणो गृणाति ।।
(अग्ने) हे संकलगग्निदेव ! (ते सुमतिं) तुम्हारी सुमतिकी (चकान:) अभीप्सा करते हुए उसने (एव) ऐसा किया है । यह सुमति (नविष्ठाय) उसे नई-नई प्रदानकी गई है, (नवमम्) उसके लिए नई-नई प्रकट हुई है । वह अग्निदेव (त्रसदस्यु:) दस्युओंको दूर भगानेवाला1 और (त्रि-अरुण:) त्रिविध उषाओंका स्वामी है (य:) जो (युक्तेन) समाहित मनसे (मे तुवि-जातस्य) मेरे अनेक जन्मों2की (पूर्वी: गिर:) अनेक वाणियोंका (अभि गृणाति) प्रप्युत्तर देता है । ४ यो म इति प्रवोचत्यश्वमेधाय सूरये । दददृचा सनिं यते ददन्मेधामृतायते ।।
(य:) जो (मे इति प्रवोचति) मुझे अपनी सहमतिसे प्रत्युत्तर देता है वह (अश्वमेधाय सूरये) अश्वमेध3 यज्ञके इस ज्ञानप्रदीप्त दाताके लिए (ऋचा) प्रकाशपूर्ण स्तुतिवचनके द्वारा (यते सनिं) उसकी यात्राके लक्ष्यकी उपलब्धि (ददत्) प्रदान करे और (ऋतायते) सत्यके अभिलाषीके लिए (मेधां ददत्) मेधाशक्ति प्रदान करे । ___________ 1. त्रसदस्यु; यह सब वस्तुओंमे इन्द्रके विशेष गुणोंको प्रतिमूर्त्त करता है । 2. 'उच्चतर स्तर पर इस आत्म-परिपूर्तिके द्वारा द्रष्टा मानों चेतनाके अनेक प्रदेशोंमें उत्पन्न होता है । इन प्रदेशोमेंसे प्रत्येकसे उसकी वाणियाँ ऊपर उठती है जो उसमें विद्यमान प्रेरणाओंको प्रकट करती हैं, ये प्रेरणाएं दिव्य-परिपूर्त्तिकी खोज करती है । मनोमय पुरुष इनको प्रत्युत्तर और अनुमति देता है । यह अभिव्यक्तिकारी शब्दको उसके अनुरूप उत्तरमें प्रकाशपूर्ण वाणी प्रदान करता है और सत्यके अन्वेषक प्राणको बुद्धिकी वह शक्ति प्रदान करता है जो सत्यको खोज लेती और धारण करती है । 3. अश्वमेध यज्ञका अर्थ हैं प्राण-शक्तिको उसके सब आवेगों, कामनाओ और उपभोगों सहित दिव्य सत्ताके प्रति भेंट करना । प्राणमय पुरुष (द्वित) स्वयं यज्ञरूपी भेंटका दाता है, वह यज्ञको तब निष्पन्न करता है जब वह अग्नि-शक्तिके द्वारा अपने प्राणिक स्तर पर अन्तर्दृष्टि प्राप्त कर लेता हैं, और जब वह इस सूक्तमें वर्णित रूपकके अनुसार ज्योतिर्मय द्रष्टा--अश्वमेध-बन जाता है । १२०
शक्ति और ज्योतिका सूक्त ५ यस्य मा परुषा: शतमुद्धर्षयन्त्युक्षण: । अश्वमेधस्य दाना: सोमा इव त्र्याशिर: ।।
(शतम् परुषा: उक्षण:) प्रसारके एक सौ सशक्त बैल1 (मा उत् हर्ष-यन्ति) मुझे आनन्दकी तरफ ऊपर उठा ले जाते हैं । (अश्वमेधस्य) अश्व-मेध यज्ञके कर्ताकी (दाना:) भेंटे (सोमा इव) सोम--आनन्दमदिरा2के ऐसे प्रवाहोंके समान है जो (त्रि-आशिर:) अपने तीन प्रकारके अन्तर्मिश्रणोंसे युक्त हैं । ६ इन्द्राग्नी शतदाव्न्यश्वमेधे सुवीर्यम् । क्षत्रं धारयतं बृहत् दिवि सूर्यमिवाजरम् ।।
(इन्द्राग्नी) ईश्वरीय मन और ईश्वरीय संकल्प (अश्वमेधे) अश्वमेध यज्ञके कर्तामें और (शतदाव्नि) सौ अश्वोंके दातामें, (दिवि अजरं सूर्यम् इव) द्युलोकमें अक्षय प्रकाशमय सूर्यकी तरह, (सुवीर्य) पूर्ण शक्ति और (बृहत् क्षत्रं) युद्धका विशाल बल3 (धारयतम्) धारण करायें । _____________ 1. प्राणकी पूरी-की-पूरी सौ शक्तियाँ जिनके द्वारा प्राणिक स्तरके सारे प्रचुर वैभवकी वृष्टि विकसित होते मनष्यपर की जाती है । क्योकि प्राणिक शक्तियाँ कामना और उपभोँगके साधन है इसलिए यह वर्षण आनन्द-मदिराके उस प्रवाहके समान है जो आत्माको नये और मादक हर्षोल्लासोकी ओर ऊँचा ले जाता है । 2.सत्तासे निचोड़कर निकाले गए आनन्दको सोमको मधु-मदिराके रूपमे निरूपित किया गया है; यह 'दूध', 'दहीं' और 'धान्य'से मिश्रित है, दूध है ज्योतिर्मय गौओंका दूध, दही है बौद्धिक मनमें गौओंकी उपज (दूध) का स्थिरीकरण, धान्य है भौतिक मनकी शक्तिमें प्रकाशकी रूपरचना । ये प्रतीकात्मक भाव प्रयुक्त शब्दों (गो, दधि, यव) के दोहरे अर्थसे इंगित किये गए है । 3.प्राणिक. सत्ताकी पूर्ण और विशाल शक्ति जो मनोमय सत्तामें निहित सत्यकी अनन्त और अमर ज्योतिके अनुरूप है । १२१
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